सांस्कृतिक भूदृश्य का विकास
सांस्कृतिक भूदृश्य का विकास
सांस्कृतिक भूदृश्य का विकास
प्राचीन काल
वेदत्रयी में स्पष्ट रुप से न तो कोसल ओंर न ही उसकी राजधानी अयोध्या का उल्लेख है । केवल अथर्ववेद में राजधानी का उल्लेख प्राप्त होता है । जिसमें अयोध्या को देवताओं द्वारा निर्मित स्वर्ग की भांति समृद्धशाली बताया गया है । अथर्ववेद में लिखा है |-
अष्ट चक्रा नवद्वारा देवाना पूरयोध्या ।
तस्या हिरण्ययः कोशः स्वर्गोज्योतिषावत्ता । ।
(देवताओं की बनाई अयोध्या में आठ महल, नवट्टार और लोहमय धन भंडार हैं। यह स्वर्ग की भांति समृद्धि सम्पन्न है |)
अयोध्या नगर के प्राचीन रुप का स्पष्ट भौगोलिक वर्णन रामायण की पंक्तियों में उपलब्ध होता है ।
वाल्मीकि ने रामायण में लिखा है-
आयता दश च दवे च योजनाति महापुरी ।
श्रीमतीर व्रीणि विस्तीणी सुविभक्त महायथा ।
(यह दैर्ध्य (लम्बाई) में 12 योजन और विस्तार (चौड़ाई) में 3 योजन थी । वहॉ बाहर के जनपदों में जाने का, जो विशाल राजमार्ग था, वह उभय पार्श्व में विविध वक्षावलियों से विभूषित होने के कारण सुस्पष्ट तथा अन्य मार्गों से विभक्त जान पड़ता था|) कनिंघम10 के अनुसार उसके घेर (व्यास) 12 योजन या 100 मील के स्थान पर 12 कोस अथवा 24 मील ही होना चाहिए क्योंकि सभी उद्यानों सहित यह नगर इतने ही क्षेत्र तक विस्तृत रहा होगा । पश्चिम में गुप्तार घाट से पूर्व में भी इतने ही क्षेत्र तक विस्तृत रहा होगा । पश्चिम से गुप्तार घाट से पूरब में रामघाट तक सीधी रेखा से कुल दूरी प्राय: 6 मील है और यदि हम अनुमान लगाये कि उपनगरों एव उद्यानों सहित यह नगर दो मील की चौड़ाई तक सम्पूर्ण मध्यवर्ती क्षेत्र में विस्तृत रहा होगा तो इसका क्षेत्र 12 कोस का आधा हो जाएगा । वर्तमान समय में जन सामान्य गुप्तारघाट एवं रामघाट की ओर प्राचीन नगर के पश्चिमी एव पूर्वी सीमाओं के रुप में संकेत करते हैं। और इनके अनुसार दक्षिणी सीमा 6 मील की दूरी पर मदरसा से समीप भरतकुण्ड तक विस्तृत थी । परन्तु चूँकि इन सीमाओं में तीर्थयात्रा के सभी स्थान आ जाते हैं अतः ऐसा प्रतीत होता है कि जन साधारण इन्हें भी प्राचीन नगर की सीमाओं में सम्मिलित समझते हैं । यह बात चौदह कोसी परिक्रमा-मार्ग से अधिक स्पष्ट हो जाती है जो प्राचीन अयोध्या नगर की बाहरी सीमा मानकर धार्मिक उद्देश्य से प्रतिवर्ष की जाती है ।
तत्कलीन मुख्य नगरीय बसाव क्षेत्र रामकोट (रामचन्द्र जी का दुर्ग) था । नगर के मध्योत्तर में स्थित यह भाग प्राचीन नगर के विकास के लिए सर्वाधिक उपयुक्त स्थल था, क्योंकि काफी ऊँचा होने के कारण बाढ़ से अधिक सुरक्षित था। अयोध्या के इस प्राचीन स्थल की एक प्रमुख विशेषता सरयू घाघरा से यातायात के अतिरिक्त, सरयू का इस स्थल के साथ लगभग एक ही तरह से सदा सर्वदा चिपके रहना है । इस दुर्ग में 20 द्वार थे और प्रत्येक ट्टार पर रामचन्द्र जी के प्रमुख सेनापति रक्षक थे । इन गढ़ कोटो के नाम भी वही थे और आज भी है जो इनके रक्षक के थे । अयोध्या महात्म्य में रामकोट के वर्णन में लिखा है कि “राजप्रासाद के मुख्य फाटक पर हनुमान जी का वास था और उसके दक्षिण में सुग्रीव और उसी के निकट अंगद रहते थे और उनके पास ही सुषेण । पूरब की ओर नवरत्न नामक एक मंदिर था और उसके उत्तर में गवाक्ष रहते थे । दुर्ग के पश्चिम द्वार पर दघिचक्र थे और उसके निकट शतिबल और कुछ दूर पर गंध मादन, शरभ और पनास थे । दुर्ग के उत्तर द्वार पर विभीषण और उनके पूर्व में उनकी स्त्री सरमा थी । उसके पूरब में वीर मत्तराजेन्द्र का वास था पूर्वी भाग में द्विविध रहते थे, दक्षिणी भाग में जाम्बवान और उनके दक्षिण में केसरी । यही दुर्ग की चारो ओर से रक्षा करते थे ।” इस दुर्ग के भीतर थे जो राजा दशरथ, उनकी रानियाँ और उनके पुत्रों के निवास स्थान थे। यद्यपि विभिन्न दुर्ग कोटो (द्वारो) की ठीक-ठीक स्थिति का पता लगाना असम्भव है, तथापि इनमें से इस समय चार ही विद्यमान हैं । ये हैं – हनुमानगढ़ी, सुग्रीव टीला, अंगद टीला और मत्त राजेन्द्र जो प्राचीन नगर दुर्ग की सीमा की ओर संकेत करते हैं । कोट के भीतर के राज-प्रासादों में कनक-भवन, रत्न सिंघसन भवन, श्रृंगार भवन, कैकेयी कोप भवन, सीता, रसोई, भरत-राजमहल, रंगमहल, रामकचेहरी, दशरथ जी का इच्छा भवन के स्थल वर्तमान में दृश्य है जिनका पुनरुद्धार एवं स्थान-स्थिति का अभिज्ञापन चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा किया गया था । यद्यपि विद्यमान स्थलों का निर्माणकाल नवीन है, तथापि, प्राचीन अवशेषों के ढ़ेर जिनके ऊपर इनका निर्माण हुआ है, पुरातत्व के लिए पर्याप्त सामग्री प्रदान करते हैं । इस प्राचीन नगर कोट के बगल में कई कुंड भी स्थित थे, जिनमें विभीषण कुंड, दन्तधावन कुंड, विद्या कुंड, हनुमान कुंड, वर्तमान समय में विद्यमान हैं ।
अयोध्या नगर के, जिसकी सावधानी से किलेबंदी की गयी थी, चारों ओर विशाल चार-दीवारी (परकोट) और जल से भरी अगाध खाई थी । परकोटे में कपाट और तोरणयुक्त विशालद्वार थे । इन द्वारों के विशिष्ट नाम थे ।12 नगर में सुन्दर, चौड़े और व्यवस्थित और उनके दोनों ओर दुकानें और गृहों की पृथक –पृथक कतारें थी । सड़कें, गलियों और राजमार्गों का प्रतिदिन साफ किया जाता था । उन पर प्रतिदिन जल का छिड़काव और पुष्प बिखेरे जात थे ।
रात में उन्हें प्रकाशित करने के लिए दीप वृक्षों का प्रबन्ध था ।14 थोड़ी-थोड़ी दूर पर चौराहे होते थे जहॉ लोग इकट्ठा होकर चर्चा किया करते थे ।15 निवास स्थग्न की अधिकता थी । अनेक रत्नखचित महल उनकी शोभा बढ़ाते थे। इस प्रकार अयोध्या के भागों, भवनों की यह व्यवस्था, उनका यह विशिष्ट नियोजन ऐसा था कि समस्त नगरीय रचना अष्ट कोणात्मक प्रतीत होती थी । शिल्पशास्त्र की परिभाषित शब्दावली में ऐसे नगर शिला को दंडक की संज्ञा दी गयी है ।
राम के पश्चात अयोध्या नगर श्रीहीन हो गया । बुद्ध के काल में यह एक महत्वहीन नगर हो गया था ।17 गोतम बुद्ध का इस नगर से विशेष सम्बंध था । अयोध्या के नागरिक गौतम बुद्ध के बहुत प्रशंसक थे । उन्होनें गौतम बुद्ध के निवास के लिए अयोध्या के समीप शांतमय वातावरण में एक सुन्दर विहभूकर निर्माण किया था । अयोध्या में ही उन्होंने अपने धर्म के सिद्धान्त बनाये और अयोध्या में ही उन्होंने बरसात के दिन व्यतीत किये थे ।18 बौद्ध ग्रंथो में अयोध्या को साकेत और विशाल की संज्ञा दी गयी है । नंदों के काल में भी अयोध्या एक समृद्धशाली नगर था । कथा सरितसागर के अनुसार यहॉं पर नंदों की एक सेना रहती थी । यद्यपि मौर्य कालीन साक्ष्य के संदर्भ में अयोध्या का उल्लेख नहीं मिलता, तथापि यहॉ से कतिपय मौर्यकालीन मुद्रायें उपलब्ध हुई है, जिससे निष्कर्ष निकलता है कि इस समय अयोध्या एक राजनैतिक केन्द्र अवश्य रहा होगा । प्रथम शताब्दी ई0 पू0 के उत्तरार्द्ध में अयोध्या एक स्थानीय राजवंश तथा तथा बाद में कूषाणों के शासन के अधीन रहा । तत्पश्चात यहॉ पुन: एक स्थनीय राजवंश का उद्दगम हुआ । किन्तु अयोध्या की पुरानी गरिमा समाप्त होती चली गयी । उपर्युक्त कालों में अयोध्या नगर का शासन एक नगरीय केन्द्र के रूप में होता है किन्तु इसके सांस्कृतिक भूदेश्य का कोई विवरण नहीं मिलता ।
तीसरी व चौथी शताब्दी में भी अयोध्या नगर उजड़ा पड़ा था । इस राजधानी का पता लगा पाना कठिन था । इसका अनुमान इससे भी लगता है कि जब विक्रमादित्य ने इसका जीर्णोंध्दार कराना चाहा तो उसकी सीमा निश्चित करना कठिन हो गया । केवल इतना ही पता लगता था कि यह नगर कहीँ सरयू तट पर बसा हुआ था और उसका स्थान निश्चित करने में विक्रमादित्य का मुख्य सूचक नागेश्वरनाथ का मंदिर था जिसका उल्लेख चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य को प्राचीन ग्रंथों से प्राप्त हुआ था । इस प्रकार अयोध्या के पुनरुध्दार का श्रेय चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (379-413 ई0) को ही प्राप्त है ।
परिणामस्वरुप चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के काल में अयोध्या पाटलिपुत्र की तुलना में एक महत्वपूर्ण नगर था ।24 एलेन के अनुसार चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा चलाये गये ताँबे के सिक्के प्राय: अयोध्या और उसके निकट पाये गये है । इससे ज्ञात होता है कि गुप्तों के काल में अयोध्या एक राज्नैतिक एवं धर्मिक केन्द्र था । उसमे एक टकसाल भी थी ।22 छठी शताब्दी में गुप्त सम्राटों की शक्ति ह्राश के बाद अयोध्या का महत्व धीरे-धीरे कम होता गया । सातवीं सदी में चीनी यात्री हृवेनसांग अयोध्या आया था। अयोध्या में इसने कूछ स्तूप देखें थे । इसमें से एक अशोक द्वारा बनवाया गया था, जो कि नदी के समीप ही था । इसके पास एक मठ था, इससे कुछ हटकर पश्चिम की दिशा में और स्तूप था जिसमें गौतम बुद्ध की अस्थियॉ विद्यमान थी । नगर के दक्षिण पश्चिम में एक मठ था । यहॉ पर 100 से अधिक बौद्ध विहार थे ।
सातवीं सदी से आगे एक लम्बी अवधि तक अयोध्या नगर उजड़ा पड़ा रहा । यहॉ वहॉ भग्नावशेष ही विद्यमान थे किन्तु एक धार्मिक केन्द्र के रुप में यह पवित्र तीर्थ स्थल बना रहा । इस प्रकार अयोध्या कितनी बार बसी और कितने बार उजड़ी इसका सही अनुमान लगना असम्भव है । सत्य तो यह है कि राम के पश्चात इसके सांस्कृतिक भूदश्य का विकस न हो सका । कूछ एक मंदिरों की स्थापना हो सकी वह
भी चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में ही । फलतः यह अपने उस प्राचीन गौरव की स्थापना न कर सका, जो इसे उस समय प्राप्त था, तथापि इसका विशिष्ट महत्व अक्षुण्य रहा ।